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हमारे पूर्वजो ने शरीर के लिए क्यों कहा की "ये तन विष की बेलड़ी"?\Why did our ancestors say about the body that "this body is a vessel of poison"?

ENGLISH TRANSLATION ARE BELOW

दोस्तों आज के आर्टिकल में हम आपको हमारे स्वास्थ्य से जुडी कही जाने वाली एक पक्ति  का आशय समझाने जा रहे है दोस्तों ये पक्ति" ये तन विष की बेलड़ी" तो आपने पढ़ी और सुनी होगी पर इसका आशय बहुत गहन है  आज हम आपको इस पंगति "ये तन विष की बेलड़ी" के बारे में बतायेंगे की ये पक्ति क्यों और कब बनी और लोगो की जबान पर कैसे आई और ये आध्यात्मिक और भौतिक रूप से क्यों महत्वपूर्ण है 

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जीवन का आधार :-

प्रत्येक व्यक्ति जीवन को पूर्णरूप से जीना चाहता है । सभी सोचते हैं कि जीने का यही एक अवसर है , आगे क्या होगा , पता नहीं । 84 लाख योनियों में से किस योनि में जन्म होगा ? मानव ही कर्मयोनि है . शेष भोगयोनियां हैं । अतः मानव देह में कर्म किस प्रकार के हों . भाव कैसा हो आदि बातें विचारणीय हो जाती हैं । अनेक प्रश्न उठते हैं - क्या हम जीवन को संयमित भाव से जी रहे हैं ? फल की अभिलाषा के बिना कर्म कर रहे है ? क्या जीवन के प्रति हमारा दृष्टिकोण सकारात्मक है ? क्या हम कर्मों को अहं भाव छोड़कर कर पा रहे हैं । यदि इन सभी प्रश्नों का उत्तर हा है तो हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं , अन्यथा नहीं । नकारात्मक उत्तर का तात्पर्य है कि हम पुनः किसी अन्य योनि में कर्मों के अनुरूप जीने को बाधित हैं । मुक्ति का तो स्वप्न भी असंभव है । 

वर्तमान जीवन शैली :-

आज की जीवनशैली शरीर जीवी रह गई है । व्यक्ति का अनुचित उचित के भेद का ज्ञान लगभग समाप्त हो गया ।  संयम जीवन के हर क्षेत्र से गायब है चाहे वह मन का हो , बुद्धि का हो , शरीर का हो या आत्मा का मन चंचल है वह विषयों की ओर भागेगा ही । आज विषयजाल से कोई भी नहीं बच पा रहा। सोशल मीडिया , 5 जी के दौर में यह और भी व्यापक हो गया है ।

मन की चंचलता और अर्जुन vs दुवापर युग:-


मन की चंचलता से तो द्वापर में अर्जुन भी नहीं बच पाया था । कृष्ण उसके तारणहार बने । इस दौर में मन को वश में करना मुश्किल ही होगा । विवेक बुद्धि के साथ किए निर्णय जीवन में सकारात्मकता भरते हैं । नकारात्मकता व्यक्ति को संतुलित जीवन से बाहर रखती है । बुद्धि ही मन के विषयों की ओर दौड़ते रहने पर अंकुश लगा सकती है अथवा उन्हीं में रमे रहने की ओर प्रेरित कर सकती है । कृष्ण विवेकपूर्ण निर्णय की क्षमता को ' व्यवसायात्मिका बुद्धि ' कहते हैं ।

यह भी पढ़िए....................वात - पित्त - कफ और त्रिदोष क्या है इनका हमारे स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता है ? भाग -2 \What are Vata, Pitta, Kapha and Tridosha and what effect do they have on our health? part 2

महात्मा कबीर और ये पंक्ति :-

कबीर ने कहा- ' यह तन विष की बेलड़ी ' अर्थात् यह शरीर विष की बेल है । शरीर क्षर है । नश्वर शरीर के प्रति आज हमारा दृष्टिकोण कुछ अलग है । 


हम स्वयं को वैसा नहीं देखना चाहते जैसा रूप हमें ईश्वर ने दिया है । महिलाएं तो स्वभाव से ही सौन्दर्य के प्रति विशेष जागरूक रहती हैं । प्राचीन समय में भी आभूषण , आलता , रक्तचन्दन आदि के लेप से श्रृंगार करती थीं । किन्तु आज सौन्दर्य प्रसाधन के नाम पर कृत्रिमता को ओढ़ रहे हैं । पुरुष भी दौड़ में शामिल हैं । हमारा पूरा ध्यान नश्वर शरीर की सजावट पर रहता है । इस शरीर के भीतर बैठे आत्म - तत्त्व की ओर तो ध्यान देने की बात भी मन में नहीं आ पाती । तब किसकी मुक्ति की चाह है , इस नश्वर देह की या आत्मा की ।  देह " तो नष्ट होगी ही क्योंकि कृष्ण भी कह रहे हैं कि प्राणी फसल के समान ही उगते हैं और नष्ट हो जाते हैं । तब शाश्वत आत्मा तो पुनः जीवन प्राप्त करेगा , हां योनि कर्मानुसार प्राप्त होगी ।

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मानव की 84  लाख योनिया:-


84 लाख प्रकारों में से कोई भी मिल सकती है । शरीर जीवी संयम भाव से जीवनयापन नहीं कर सकता । भोग - विलास में जिन्दगी जीना ही बंधन का कारण बनता है ।. ' कर्मों में फल की अभिलाषा नहीं रखो , ' इस बात पर आधुनिक चिन्तन में डूबा ' व्यावहारिक ' व्यक्ति तुरन्त कहता है कि जब फल ही नहीं तो कर्म क्यों किया जाए । आज व्यक्ति जीवन में पहले फल की ओर दृष्टि रखता है । 

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जीवन में पैसे का निवेश और महत्त्व :-

शेयर मार्केट में पैसा लगाना हो या म्यूचुअल फंड ( पारस्परिक निधि ) में निवेश हो , सभी जगह व्यक्ति गुणा - भाग करके गणना करता है कि इसका कितना फल , कब मिलेगा । शिक्षा , व्यवसाय , नौकरी यानी जीवन के हर क्षेत्र में फल के प्रति सोचता है ।


गणनात्मक भाव में तो हम रिश्ते भी निभा रहे हैं । यह भाव क्या हमें मुक्तिमार्ग पर ले जाने में सहायक होगा । आज तो प्रत्येक क्षण फल की चिन्ता में व्यतीत हो रहा है । कर्म चाहे करें या ना करें , पर फल तो चाहिए ही । यह आकांक्षा हमें बन्धनग्रस्त बने रहने के लिए , चौरासी के चक्र में घूमते रहने के लिए बहुत है । फल के प्रति दृष्टि व्यक्ति को अहं भाव से दृढ़ता से बांधती है । किया हुआ कर्म यदि ' मैंने किया ' इस भाव के साथ समाप्त होता है तो अवश्य ही इसमें मुक्ति तो कदापि संभव नहीं है । कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करना चाहिए । 

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अन्न का महत्त्व:-

आज की पीढ़ी तो भोजन से पहले मोबाइल उठाकर थाली में क्या परोसा गया है , उसकी फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर ' पोस्ट ' करती है ।


उनके मन में अन्न का • ईश्वर को भोग लगाकर स्वयं ग्रहण करने की बात आती ही नहीं । ना ही यह समझ आता है कि अन्न ब्रह्म है ।  कर्मों के प्रति अच्छा - बुरा भाव ही नहीं है । तब कर्मों की परिभाषा क्या है , यह भी विचारणीय है और फल की आकांक्षा के परिणाम क्या हैं , इस पर भी चिन्तन होना चाहिए ।

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आर्टिकल पढ़ने के लिए धन्यवाद  

ENGLISH TRANSLATION

Friends, in today's article we are going to explain to you the meaning of a line related to our health, "Ye tan vishak ki beldi". Friends, you must have read and heard this line "Ye tan vishak ki beldi", but its meaning is very deep. Today we will tell you about this line "Ye tan vishak ki beldi", why and when this line was made and how it came on the tongue of people and why it is important spiritually and physically.

यह भी पढ़िए\also read ....................वात पित और कफ यानि इन त्रिदोषों से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उतर। \Some important questions and answers related to these tridoshas, ​​i.e. Vata, Pitta and Kapha

The basis of life: -

Every person wants to live life to the fullest. Everyone thinks that this is the only opportunity to live, what will happen next, do not know. In which of the 84 lakh yonis will we be born? Human is the karmayoni. The rest are bhogyonis. Therefore, what kind of karma should be done in the human body, what should be the feeling, etc., things become worth thinking about. Many questions arise - are we living life with restraint? Are we doing karma without the desire for the fruit? Is our attitude towards life positive? Are we able to do our deeds without any ego? If the answer to all these questions is yes, then we are moving in the right direction, otherwise not. A negative answer means that we are again forced to live in some other form according to our deeds. Even the dream of liberation is impossible.

Current lifestyle:-

Today's lifestyle has become a living body. A person's knowledge of the difference between right and wrong has almost ended. Restraint is missing from every sphere of life, whether it is of the mind, intellect, body or soul. If the mind is fickle, it will definitely run towards the subjects. Today no one is able to escape from the web of subjects. In the era of social media, 5G, it has become even more widespread.

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Mind's fickleness and Arjun vs Dwapar era:-

Even Arjun could not escape from the fickleness of the mind in Dwapar. Krishna became his savior. In this era, it will be difficult to control the mind. Decisions taken with discretion fill positivity in life. Negativity keeps a person out of a balanced life. Only intelligence can curb the mind's running towards subjects or can motivate it to remain engrossed in them. Krishna calls the ability to make a judicious decision as 'vyavashyatmika buddhi'.

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Mahatma Kabir and these lines:-

Kabir said- 'Yeh tan vishwas ki beldi' i.e. this body is a vine of poison. The body is perishable. Today our attitude towards the mortal body is somewhat different. 

We do not want to see ourselves as God has given us. Women are naturally very conscious about beauty. Even in ancient times, they used to adorn themselves with ornaments, alta, red sandalwood etc. But today, in the name of beauty products, they are wearing artificiality. Men are also involved in the race. Our entire focus remains on the decoration of the mortal body. It does not even come to our mind to pay attention to the soul element sitting inside this body. Then who desires salvation, this mortal body or the soul? The body will surely perish because Krishna also says that living beings grow and perish just like crops. Then the eternal soul will attain life again, yes the species will be attained according to the deeds.

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84 lakh species of human beings:-

Any of the 84 lakh species can be attained. A bodily being cannot live life with restraint. Living life in pleasure and luxury becomes the cause of bondage. 'Do not desire the fruit of your deeds', on this the 'practical' person immersed in modern thinking immediately says that when there is no fruit then why do the work. Today a person first looks at the fruit in life.

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Investment of money and importance in life:-

Whether it is investing money in the share market or in mutual funds, everywhere a person calculates by multiplication and division how much fruit will he get and when.

He thinks about the fruit in every sphere of life, i.e. education, business, job. We even maintain relationships in a calculative sense. Will this feeling help us to take the path of salvation? Today every moment is spent worrying about the result. Whether we do the work or not, we need the result. This desire is enough to keep us bound, to keep us moving in the cycle of 84. The vision of the result binds a person strongly with ego. If the work done ends with the feeling 'I did it', then certainly salvation is not possible in it. The works should be dedicated to God.

Importance of food:-

Today's generation takes out the mobile before eating and takes a photo of what is served in the plate and 'posts' it on social media.

 It does not even come to their mind to offer the food to God and then consume it themselves. Nor do they understand that food is Brahma. There is no feeling of good or bad towards the works. Then what is the definition of karma, this is also worth thinking about and what are the consequences of aspiring for the fruit, this should also be thought about.

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