Header ads 728*90

सत्य और असत्य का जीवन में क्या अस्तित्व है ?\What is the existence of truth and falsehood in life?

 सत्य का नाम ही जीवन है है । सारा जगत आवरण में ढका हुआ सत्य है । आवरण इसके बाहय स्वरूप को सत्य का प्रतिबिम्ब बना देता है । सत्य का छिप जाना ही असत्य है मिथ्या है , झूठ है । सत्य का भ्रम है । जीवन इसी असत्य की छतरी के नीचे चलता है । छाया में जीवन सुखद लगता है । छतरी हटते ही धूप में तपना पड़ता है । कौन चाहेगा सत्य के कई रूप नहीं हो सकते , असत्य के होते हैं ।

यह भी पढ़िए....................दशा-अन्तर्दशा व उम्र के अनुसार फल देते है ग्रह-नक्षत्र:-़ \According to Dasha-Antardasha and age, the planets and constellations give results.

 ब्रह्म सत्य है , एक ही है । जगत के अनन्त रूप है । मैं जगत का हिस्सा बनकर जीता हूं तो दिन भर असत्य के सहारे ही चल सकता हूं । प्रातः उठते ही ईश्वर को याद करता हूं । प्रार्थना करता हं । जो भीतर बैठा है उसको याद करता हूं । इससे बड़ा झूठ क्या हो सकता है ? उसे बाहर देखता हूं । मन्दिर - मस्जिद में आवाज लगाता हूं । संभव है क्या वह बाहर दिखाई देगा ? मुझे याद नहीं रहा कि मैं उसी का तो अंश हूं । किसी को कहता हूं मैं तुम्हारा भाई हूं , किसी को पुत्र , किसी को मित्र वगैरह - वगैरह । क्या मैं इतनी तरह का हूं ? 

अथवा एक ही तरह का बनाया है ईश्वर ने ! समाज ने मुझे इतनी तरह के झूठ बोलकर जीना सिखा दिया । दिनभर अपनी असलियत को छिपाकर एक बहरूपिए की तरह जीता रहता हूं । मुझसे ज्यादा दया का पात्र और कौन होगा ! ठीक यही होता है मेरे साथ हर सम्बन्ध के साथ , हर संवाद के साथ , आदान - प्रदान के साथ , अच्छे - बुरे या पसन्द - नापसन्द के साथ । मन में उठने वाली प्रत्येक कामना के साथ । मैं बस इतना जानता हूं कि मुझे कामना पैदा करना नहीं आता । बहुत सोचकर भी इसका कारण समझ में नहीं आता ।

यह भी पढ़िए.....................यह  पक्षिपथलम  क्या  है?


 तब मैं यदि यह कहूं कि अमुक व्यक्ति अच्छा करूं , यह प्रश्न पैदा ही नहीं होता । लेकिन अनुभव बताता है कि माया का यह रूप जीवन में पग - पग पर मुझे झूठा साबित कर देता है । कामना न होते हुए भी मेरी दिखाई देती है । इससे बड़ा असत्य आचरण क्या दिखाई देगा मेरा । कामना की अभिव्यक्ति कई बार स्थिति भी पैदा कर देती है कि व्यक्ति निरुत्तर होकर गूंगा हो जाता है । अपमानित भी महसूस करता है ।

 शत प्रतिशत सत्य बोलकर भी आप प्रारब्ध जनित कामना को झेल नहीं पाते । क्योंकि इसके साथ एक और व्यक्ति की कामना जुड़ी होती है , जिससे व्यवहार होता है । उसको भी नहीं पता उसके क्यों तो विश्वास उठता है और क्यों अविश्वास अपना नाटक दिखाता है दोनों ही सत्य होते हुए भी दोनों ही मिथ्या श्रेणी आते हैं । व्यवहार को इसीलिए एक तरफा नहीं देखना चाहिए । कुछ भी समझ में नहीं आएगा । जीवन के सारे असत्य का एक ही मूल है - कामना । धर्म अर्थ - काम मोक्ष रूपी पुरुषार्थ के दो मार्ग - धर्म आधारित मार्ग - मोक्ष को लक्ष्य करता है । 


दूसरा काम या कामना मार्ग , जो की ओर धकेलता है । अर्थ शरीर को सुख देता है । उसे संकल्प करने रोकता वृक्ष बनने रोकता है । तब वह समाज को क्या देगा ! उसका संकल्प माटी से जुड़कर विश्वव्यापी नहीं हो पाता । पेट जुड़कर संकुचित रह जाता ऐसा नर कभी सपने में भी नारायण बनने की सोच ही नहीं सकता । सत्य और असत्य को अर्धनारीश्वर नहीं है , तो क्या नहीं ? कामना ही मेरे जीवन का बड़ा झूठ है । न तो यह मेरे नियंत्रण में आती , न कोई मुझ पर विश्वास ही करता कि यह कामना मेरी नहीं थी । मैंने इसे पैदा नहीं किया । 

तब इसे मैं पूरी करूं या न  के सिद्धान्त के साथ समझा जा सकता है । नर भी आधा नारी है , और नारी भी आधी नारी है । जीवन व्यवहार में क्या नर को नारी के भाव में देखा जाता है । वह इस भाव में को कायरता , अपमान सूचक मानता है । उसके अहंकार को तो इस सोच से ही ठेस लग जाती है । वह तो शत प्रतिशत पुरुष रूप में जीना चाहता है आक्रामकता अहंकार और भुज बल साथ उसे कहां मालूम पड़ता है ये तो मूलतः पशु भाव हैं अज्ञान के परिचायक भाव हैं भीतर भी जो प्रेम - करुणा माधुर्य की दौलत होनी चाहिए वह अल्प मात्रा में रह गई अतः वह इसकी पूर्णता के लिए बाहर नारी की ओर लपकता है । नारी सशक्तीकरण की शुरुआत तो यहां से होनी चाहिए । 

पुरुष का नारी भाव सदा जाग्रत रहे उसमें ग्रहण और पोषण का भाव उतना ही मुखर हो , जैसा एक नारी में होता है किसी दुखी देखकर उसका भी मन द्रवित होने लगेगा । आज तो दूसरों को दुखी करके सुखी होना चाहता है । यह अत्याचार की परिभाषा है , आसुरी है । इसमें मानवीय संवेदना नहीं है । का अति पौरुष ही आसुरी वृत्ति बन जाता है । पुरुष भाव तो सबके भीतर प्रतिष्ठित रहता है । चाहे नर हो या शरीर भीतर जो आत्मा है , जो जीव का शाश्वत स्वरूप है , वही अव्यय पुरुष कहलाता है वही गीता के कृष्ण हैं । इसीलिए सृष्टि को पुरुष प्रधान कहा है । नर - मादा तो हर प्राणी में होते हैं । वे भी तो सभी पुरुष हैं केन्द्र में । अतः नर और पुरुष एक नहीं हैं । नर और नारी दोनों को ही इस पुरुष तक पहुंचना है । साथ - साथ ही पहुंच सकते हैं । दोनों के संतुलन विशेष के बिना संभव नहीं है।
असत्य नारी का स्त्रैण पक्ष उसकी शक्ति है । यदि उसका नर भाव बढ़ता जाता है , नारी भाव से आगे बढ़ जाता है , तब उसका स्त्रैण रूप घटता चला जाता है । नर पर उसकी पकड़ ढीली पड़ती चली जाती हैं । परिवार पर उसका नियंत्रण छूटता चला जाता है । परिवार बच्चों तक ही सीमित रह जाता है । उसका संकल्प भी शक्तिरूपा न होकर पेट तक ही सिमट जाता है । इसी का एक पक्ष यह भी है कि उसका बलवान होता नर भाव उसे भी आक्रामक बना देता है , उष्ण बना देता है , अहंकारी बना देता है । उसका नारी पक्ष कमजोर पड़ जाता है । यही कारण है उसके प्रति बढ़ते अत्याचारों का । नारी का यह पुरुष ( नर ) रूप जीवन भी उतना ही असत्य है , जितना कि नर का स्त्रैण - शून्य भाव ।

 दोनों का ही जीवन इतने बड़े इसी स्वरूप को दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है । शिक्षा में बुद्धि और शरीर का पोषण होता है मन और आत्मा नगण्य या अति अल्प मात्रा में पोषित होते हैं । नर का बुद्धि भाग पोषित होता है । नारी के मन का शोषण होता है नर और नारी दोनों ही नर भाव में जीने लगते । नारी भाव स्त्रैण दोनों का ही छूट जाता है । सम्पूर्ण जीवन ही एक पक्षीय- अपूर्ण असंतुलित हो गया प्रकृति ने जीवन को पूर्णता देने के लिए नर - नारी दो भाव बनाए और हमने स्वेच्छा से अपूर्णता को स्वीकार किया । एक तरह से तो प्रकृति को चुनौती ही दी है । तब जीवन में सुख कैसे प्रवेश करेगा । सम्वत्सर के सूर्य और चन्द्र भाग से नर - मादा उत्पन्न होते हैं । जब दोनों ही नर भाव में जीना चाहेंगे , तो जीवन में अग्नि की प्रचुरता से दाहकता आ जाएगी ।
असत्य का तीसरा स्वरूप जीवनशैली से पैदा होता है । जिस नारी का स्त्रैण भाव कम हो गया , नर भाव बढ़ गया , वह पुत्री ( नारी ) को भी नारी भाव का प्रशिक्षण नहीं देगी । उसके नर भाव का पोषण करेगी उसके असत्य जीवन की यही आधारशिला बन जाती है । स्कूल में जो लड़कों को नहीं सिखाते , वह लड़कियों को भी नहीं सिखाया जाता । शिक्षा नर - प्रधान है । न उसमें नारी भाव का ( अर्धनारीश्वर के ) पोषण हैं और न ही मातृत्व की शिक्षा का समावेश । क्योंकि वह नर की आवश्यकता ही नहीं है । 

तब जीवन में निर्माण - माधुर्य और संयम कहां से आएगा ? इस असत्य की प्रतिष्ठा ही जीवन का सत्य शिक्षा के उच्चतम शिखर पर तो स्त्रैण - शून्यता ही सामाजिक पूर्णता का प्रमाण - पत्र बन गया इसी को शुद्ध संवेदनहीनता कहेंगे । बिना दिल की , चलती - फिरती पाषाण मूर्तियां कभी भी मानवता की भूमि नहीं बन सकती । किसी बच्चे को जन्म तो दे सकती हैं अन्य प्राणियों की तरह जैविक संतान किन्तु संस्कार नहीं दे सकतीं । 
किसी देश की संस्कृति का निर्माण नहीं कर सकतीं । किसी भी विकसित देश को उदाहरण रूप में देखा सकता है । जिसको हम ' शक्ति रूपा ' मानते हैं , वह स्वरूप लुप्त हो रहा है । असुर भावों का मर्दन रुक रहा है । इससे एक कदम आगे स्वयं उनके पाले में जीने को व्याकुल हैं । नर - नारी के इस भाव ( स्त्रैण का सशक्तीकरण यदि नहीं हुआ तो शीघ्र ही मानव समाज में पशुता का साम्राज्य छा जाएगा । हमको मानव कहना ही सबसे बड़ा असत्य साबित होगा ।
पढ़ने के लिए धन्यवाद

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ